पुस्तक – जलते हुए वन का वसंत
कवि – दुष्यंत कुमार
प्रकाशक – वाणी प्रकाशन
पृष्ठ – ११२
समीक्षक – अमित मिश्रा
कविता और काव्य संग्रह संजोने का तो मेरा पुराना शौक है। और इस शौक के लिए मैं कुछ भी करता हूँ – पुस्तकें खरीदना, उधार माँग लेना या कभी-कभी लेखकों से उनकी हस्ताक्षरित पुस्तकें भी अर्जित करना। साहित्य अकाडेमी द्वारा प्रकाशित काव्य-संग्रह इस मामले में काफी अच्छे हैं क्यूंकि उनकी विषय वस्तु भी अच्छी होती है और मूल्य भी काफी कम होते हैं। दुष्यंत कुमार जी की कविता संग्रह जलते हुए वन का वसंत मैंने पटना स्थित प्रकाशन विभाग के विक्रय केंद्र से खरीदी थी और पुस्तक को मैंने बड़ी बारीकी से पढ़ा भी है। कुछ नवीनीकरण तो कुछ वही पुरानी काव्य-वाणी है जो सदियों से चली आ रही है! आज मैं इसी कविता संग्रह पे अपनी राय रखूँगा और ये पूर्णतः मेरी व्यक्तिगत राय है जो शायद आपके विचारों से मेल न खाये पर मेरे अपने अनुभवों पे आधारित है।
दुष्यंत कुमार जी यूँ तो बड़े ही विख्यात कवि कहे जाते हैं लेकिन उनके इस काव्य संकलन में मुझे वो बात नहीं दिखी तो अन्य कवियों के संकलनों में होती है – उदाहरण के स्वरुप निराला एवं अज्ञेय जी का नाम ले सकता हूँ मैं! उनकी कविताओं में एक सम्मिलित उपलब्धि या फिर एक सम्मिलित भावना का भाव होता है और कहीं न कहीं दुष्यंत जी के कविताओं में एकांकी भाव का होना एक पाठक के तौर पे खलता है! हाँ, कुछ कवितायेँ अवश्य ही विचारणीय एवं उत्तम स्तर के हैं ये भी बताना महत्वपूर्ण है!
दुस्यंत कुमार द्वारा लिखी काव्य संग्रह ‘जलते हुए वन का बसंत’ वाकई ही एक अनोखी रचना है। अनेको प्रकार के कविताओं से सुसज्जित यह पुस्तक एक अनकही मिशाल पेश करने की कोशिश करती है। पर मेरा मन यह मानने से हमेशा इंकार करता है की इन कविताों में एक प्यापक दृश्टिकोण है। कवितओं का तो पहला उदेश है की उनमें सार्वभौमिकता हो अन्यथा वो काव्य कहाँ रह जायेगा?
वह तो बस अपने मन को तसल्ली देने का एक साधन बन कर रह जायेगा। जैसे की उनकी एक कविता है ‘एक समझौता’ और उसकी कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार से हैं:
वह। …
अब मेरी प्रेमिका नहीं है।
हमें जोड़ने वाला पुल
बाहरी दबाबों से टूट गया।
अब हम बिना देखे
एक दूसरे के सामने से निकल जाते हैं।
शब्दों की सीमा के कारण मैं यह पूरी कविता तो नहीं लिख पाउँगा, लेकिन अगर आप इस कविता को पढ़ेंगे तो आपको यह अवश्य दिखेगा की दुष्यंतजी की कविता वास्तविक में एक कविता न होके खुद से किया जाने वाला एक वार्तालाप होके कहीं न कहीं सिमट जाता है। उन्होंने जिस परिस्तिथियों का वर्णन किया है उनमें न तो मेरे लिए कुछ है न ही आपके के लिए कुछ होगा।
हलाकि उनकी एक अपनी विचारधारा थी, मानता हूँ, पर कविता में इसे शामिल कर देना काव्य जैसे सुन्दर शब्द को भी लज्जित कर जाता है। दुष्यंत जी की एक कविता “देश” नामसे इसी संकलन में सम्मिलित है और वह वाकई में बड़ी ही विचित्र है जिसे पढ़के मैंने बस यही सोचा की यही देश जो और कवियों को प्रेरणा देता है दुष्यंत जी को कैसे ऐसे वीराना छोड़ जाता है? कहीं न कहीं ये उन वामपंथी विचारधाराओं से ग्रसित थे जो देश के परिकल्पना में ही यकीन नहीं रखता और ये तो मैं वामपंथ का इतिहास पढ़के भी जान सकता हूँ फिर क्यों मैं इनकी पुस्तक पढूं?
हाँ, इका-दुका कवितायेँ आधुनिकता की चमड़ी उधेड़ते वाकई प्रंशसनीय हैं जिनके बारे में मैं कहूंगा की वो हमारे और आपके विचारों पे खड़े उतरते हैं! जैसे की उनकी कविता अस्ति-बोध हमें यह एहसास दिलाती है की हम कितने ही असंवेदनशील होते जा रहे हैं और खुशियां या दुःख हमें बस एक दैनिक दिनचर्या सा लगता है!
अंततः, दुष्यंत जी का ये काव्य संग्रह जलते हुए वन का वसंत ज्यादा निराश तो नहीं करता पर इतना प्रसन्न भी नहीं करता की मैं किसीसे ये कहूं की इसे पढ़ें! पर हाँ, यदि आप इसे पढ़ना ही चाहते हैं तो आप निचे दिए गए लिंक से ये पुस्तक अमेजॉन इंडिया से मंगवा सकते हैं:
जलते हुए वन का वसंत
समीक्षा अमित के द्वारा
जलते हुए वन का वसंत - समीक्षा
2.4
Summary
मैं न ये कहूंगा की आप ये रचना पढ़ें न ये कहूंगा की आप ना पढ़ें! मुझे तो इस रचना ने उतना आकर्षित नहीं किया!