“भिक्षुक” नामक कविता सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला की एक अत्यंत पीड़ादायी, सत्य की गुदड़ी में सनी हुई, मानव ह्रदय को आघात पहुँचाने वाली रचना है। इस कविता को पढ़कर किंचित ही कोई पाठक मन-ही-मन बिना अश्रु बहाये रह सकता है! भिक्षुक मानवता के सामाजिक, मानसिक और आध्यात्मिक स्थितियों को प्रकट करने का प्रयास करती है। इस कविता में भिक्षुक के चित्रण के माध्यम से समाज की असमानता, संघर्ष, और उसकी सबसे मजबूत दुखद यथार्थता दिखाई जाती है। निराला जी की सत्य को सत्य कहने की हठधर्मिता ही उन्हें एक महान कवि बनाती है!
पहली पंक्ति “वह आता– दो टूक कलेजे को करता, पछताता पथ पर आता।” द्वारा, कवि भिक्षुक की विवशता को बताते हैं, जिसमें वे खुद से निरंतर पूछते हैं कि उनकी जीवन में क्या गलती हो गई जिसके कारण वे आज भिक्षाटन कर रहे हैं। “दो टूक कलेजे को करता, पछताता” इसका अर्थ है कि वे अपने ह्रदय को दो टुकड़ों में बाँट रहे हैं, जिससे उन्हें खुद पर पछतावा हो रहा है। हाय रे मानव समाज!
“पेट पीठ दोनों मिलकर हैं एक, चल रहा लकुटिया टेक,” इन पंक्तियों में भिक्षुक की असमानता और दुखद स्थिति का वर्णन किया गया है। यहाँ कवि बता रहे हैं कि भिक्षुक का पेट और पीठ, जिनका मिलन आम कदाचित ही सामान्य परिस्थितियों में होता हो, एक हो गया है। निर्धनता एवं दुर्भाग्य मनुष्य के सब से बड़े शत्रु हैं। और यदि ये दोनों आपस में महागठबंधन कर लें फिर तो क्या ही कहने! “मुट्ठी भर दाने को — भूख मिटाने को मुँह फटी पुरानी झोली का फैलाता” द्वारा उनकी भूख को दिखाया जाता है जिसकी सीमा अब शायद ही कोई बची होगी! परन्तु वे फिर भी अपनी झोली को फैलाकर भिक्षा मांगने के लिए तैयार हैं। और झोली का दारुण विवरण भी कहीं न कहीं सामाजिक असमानता की पोल खोलता दीखता है!
“साथ दो बच्चे भी हैं सदा हाथ फैलाए, बाएँ से वे मलते हुए पेट को चलते, और दाहिना दया दृष्टि-पाने की ओर बढ़ाए।” कवि इस पंक्ति में भिक्षुक के साथ उसके साथियों की तस्वीर को चित्रित कर रहे हैं। वे बच्चों के साथ बड़े संघर्ष में हैं, और पथिकों की ओर मन में आशा लिए देखते हैं – पेट पर हाथ मलते हुए वे बच्चे यही कहते होंगे, बिना कुछ कहे, की भूख मानवता का सत्य है और न मिटे तो अभिशाप!
“भूख से सूख ओठ जब जाते, दाता-भाग्य विधाता से क्या पाते? घूँट आँसुओं के पीकर रह जाते।” इस पंक्ति में भिक्षुक की भूख के दर्द को व्यक्त किया गया है, और यह सवाल उठाया गया है कि उन्हें उनके दाता-भाग्य विधाता से क्या मिलता है? उनके आँसुओं की घूँटें उनके दुख को और भी गहरा बना देती हैं।
“चाट रहे जूठी पत्तल वे सभी सड़क पर खड़े हुए, और झपट लेने को उनसे कुत्ते भी हैं अड़े हुए !” इस अंतिम पंक्ति में दिखाया जाता है कि भिक्षुकों के साथ कठिनाईयाँ कितनी होती हैं, क्योंकि वे जो भोजन तिरस्कृत पत्तलों से भी उठाते हैं. वे भी उनसे छीन लेने के लिए व्याकुल हुए कुत्तों की दृष्टि से कहाँ दूर है? इस पंक्ति से दर्शाया जाता है कि समाज में भिक्षुकों के स्थिति कितनी निर्ममता से देखी जाती है और उनका आदरनीयता उनसे छीन लिया जाता है।
इस रूपरेखा में, “भिक्षुक” कविता सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला की सोच और भावनाओं को व्याक्त करने के लिए एक अद्वितीय तरीके से बनाई गई है। यह कविता समाज में असमानता, दुःखद स्थितियों, और मानवीयता की आवश्यकता पर विचार करने के लिए एक बेहद महत्वपूर्ण रचना है। और आने वाले वर्षों में भी यह कविता मानव समाज को इस सत्य का बोध कराती रहेगी कि हे मानव, सहायता करने से पीछे न हटो! सहयोग करो एक-दूसरे का, समाज को साथ लेकर चलो और दो पैसे दान-धर्म में भी व्यय करो।
आशीष
हिंदी समीक्षा