बॉलीवुड, भारतीय सिनेमा का हृदय, हमेशा से ही ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विषयों को अपने पर्दे पर उतारने के लिए जाना जाता रहा है। हाल के वर्षों में, ऐतिहासिक फिल्मों के प्रति बॉलीवुड का दृष्टिकोण काफी हद तक बदला है। पहले जहाँ जोधा अकबर जैसी फिल्मों में मुगल शासकों का गुणगान किया जाता था, वहीं अब छावा जैसी फिल्मों में हिंदू सम्राटों की वीरता और उनके योगदान को उजागर किया जा रहा है। यह परिवर्तन क्या केवल धन उपार्जन का एक नया माध्यम है, या फिर यह बॉलीवुड के वामपंथी और मुस्लिम तुष्टिकरण से ग्रसित चलचित्र निर्माण की शैली में एक सच्चा परिवर्तन है? मैंने बॉलीवुड पर वर्षों से अपनी दृष्टि जमाये रखी है एवं कई शोधपत्र पढ़े हैं। इस इंडस्ट्री या फैक्ट्री के संस्कारों और विचारों में कोई क्रांतिकारी परिवर्तन तो होने से रहा! फिर यह क्या है? क्या कारण हो सकते हैं की मुग़ल शाषकों के हाथों हुए अत्याचार और दुराचार पर सदैव ही रोमांस और झूठी वीरता की चादर चढाने वाला बॉलीवुड अनायास ही हिन्दू शाषकों में अपना इतिहास निहारने लगा? ये एक वास्तविक ह्रदय परिवर्तन है या इस अनैतिक षड़यंत्र के पीछे एक पूरा तंत्र है? इस प्रश्न का उत्तर खोजने के लिए हमें बॉलीवुड के ऐतिहासिक सिनेमा के विकास और उसके सामाजिक-राजनीतिक प्रभावों को गहराई से समझना होगा।
1. ऐतिहासिक सिनेमा का उदय और विकास
बॉलीवुड में ऐतिहासिक फिल्मों का इतिहास काफी पुराना है। 1960 के दशक में मुगल-ए-आज़म जैसी फिल्मों ने मुगल शासकों के जीवन और उनके शासन को रोमांटिक और गौरवशाली ढंग से प्रस्तुत किया। यह फिल्में न केवल बॉक्स ऑफिस पर सफल रहीं, बल्कि उन्होंने भारतीय सिनेमा में ऐतिहासिक विषयों को एक नई पहचान दी। हालाँकि, इन फिल्मों में मुगल शासकों को अक्सर एक उदार और प्रगतिशील शासक के रूप में दिखाया गया, जबकि हिंदू राजाओं और सम्राटों की भूमिका को कम करके आंका गया। यह भोंडा प्रदर्शन इतिहास की वास्तविकताओं से कोसों दूर एवं बॉलीवुड की अमर्यादित तौर – तरीकों का एक अभिन्न भाग हुआ करता था।
फिर आती है 2000 के दशक में आशुतोष गोवारीकर की फिल्म जोधा अकबर जिसने पुरानी चली आ रही इस परंपरा को और मजबूत किया। इस फिल्म में अकबर को एक उदार और धर्मनिरपेक्ष शासक के रूप में चित्रित किया गया, जबकि उसकी विजय और शासन को एक सांस्कृतिक और सामाजिक एकीकरण के रूप में प्रस्तुत किया गया। इतिहास? वह क्या होता है? कहानियां और कोरी कल्पनाएं करनी हो तो बॉलीवुड को ही श्रेष्ठतम पुरस्कार मिलने चाहिए! यह फिल्म न केवल बॉक्स ऑफिस पर सफल रही, बल्कि इसने भारतीय समाज में मुगल शासकों के प्रति एक सकारात्मक छवि बनाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। यह क्यों हो रहा था? क्या कारक रहे होंगे इनके पीछे? क्या बॉलीवुड और वामपंथी इतिहासकारों की पोषक सत्ता भी इन कार्यों में संलिप्त थी? कल्पनाएं अनंत हैं किन्तु तथ्य भी हमें कल्पनाओं को तौल कर ही निकालने होते हैं! सत्ता के सम्पोषण में इतिहास लेखन से लेकर महिमा मंडन तक की कहानी अपने दादा – दादी और नाना – नानी से सुनने की आवश्यकता भी नहीं है। आज सोशल मीडिया का युग है; सत्य को संसार की सहस्त्रों परतें भी अधिक समय तक आश्रय नहीं दे सकती!
2. छावा और हिंदू सम्राटों का उदय
अपने कुम्भकर्णी नींद से उठकर हाल के वर्षों में बॉलीवुड में हिंदू सम्राटों और उनके योगदान को उजागर करने वाली फिल्मों का उदय हुआ है। छावा (2024) जैसी फिल्मों ने छत्रपति संभाजी महाराज और उनके संघर्ष को एक नए नजरिए से प्रस्तुत किया है। हालाँकि यही इतिहास है, किन्तु अभी भी बॉलीवुड को “स्टील के बॉल्स” अपने विशेष अंगों के स्थान पर लगाने ही होंगे तब जाकर वो पूरी प्रमाणिकता के साथ तथ्यों को यथावत परदे पर ला पाने का साहस जूता पाएंगे! प्रतीक बोराडे जैसे चलचित्र समीक्षकों ने अपने वीडियोज के माध्यम से छावा में भी ऐतिहासिक रिक्त स्थानों एवं विचलनों की उजागर करने का उत्कृष्ट कार्य किया है। फिर भी, इन फिल्मों में हिंदू सम्राटों की वीरता, उनके धार्मिक और सांस्कृतिक मूल्यों, और उनके संघर्ष को विस्तार से दिखाया गया है। यह फिल्में न केवल ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित हैं, बल्कि उन्होंने भारतीय समाज में हिंदू सम्राटों के प्रति एक नई जागरूकता पैदा की है। तानाजी के बाद यह किंचित ही केवल दूसरी ही फिल्म है परन्तु वामपंथी और छद्म इतिहासकारों के अमाशयों में ममोड़े उठने आरम्भ हो गए हैं। उनका कहना है कि ऐसी फ़िल्में समाज में विघटन उत्पन्न कर सकती हैं। परन्तु क्या इतिहास जानना और समझना सामाजिक अपराध है? नहीं! यह वामपंथी और मुगलिया धुनों पर थिरकने वाले इतिहास लेखकों की वो पीड़ा है जो अभी और बढ़ने वाली है। वह नहीं चाहते की भारतीय बख्तियारपुर नाम के पीछे छिपे तथ्यों को जाने! वह नहीं चाहते की भारत की युवा संतानें यह प्रश्न करे की यदि मुस्लिम शाषक भारतवर्ष केवल सूफी संगीत और दर्शन लेकर आये थे तो हमारी धरोहरों और दर्शन की पुस्तकों को, ज्ञान के अथाह रत्नसागर और महासागरों को नालंदा विश्विद्यालय के रूप में क्यों अग्नि के विशाल लपटों को सौंप दिया था?
हालांकि मैं यह नहीं मानता की बॉलीवुड अपने प्रयासों और निष्ठा को लेकर कभी गंभीर हो सकता है, किन्तु यदि आरम्भ की रणभेरी से ही इतना कष्ट और इतनी पीड़ा है सोचिये यदि कुछ और फ़िल्में बन गयीं तो इन इतिहास की पुरानी दुकानों और गर्म लोहे को मनमानी ढंग से मोड़ने वाले इतिहासकारों का क्या होगा?
और हाँ , छावा जैसी फिल्मों का उदय कई कारकों का परिणाम है। पहला, भारतीय समाज में हिंदू राष्ट्रवाद और सांस्कृतिक पुनरुत्थान की बढ़ती लहर। दूसरा, ऐतिहासिक तथ्यों और शोध के प्रति बढ़ती जागरूकता। तीसरा, बॉक्स ऑफिस पर ऐतिहासिक फिल्मों की सफलता और उनके प्रति दर्शकों का बढ़ता रुझान। बॉलीवुड जैसा दोहरे मापदंडों और निष्ठा को पग – पग बेचने वाला समूह बिना आर्थिक लाभ को विचारे कुछ नहीं करेगा!
3. वामपंथी और मुस्लिम तुष्टिकरण का प्रभाव
बॉलीवुड पर वामपंथी और मुस्लिम तुष्टिकरण का आरोप लंबे समय से लगाया जाता रहा है। कई आलोचकों का मानना है कि बॉलीवुड ने ऐतिहासिक फिल्मों में मुगल शासकों को एक उदार और प्रगतिशील शासक के रूप में दिखाकर उनकी छवि को सजाने-संवारने का काम किया है। इसके विपरीत, हिंदू सम्राटों और उनके योगदान को कम करके आंका गया है। अशोका द ग्रेट फिल्म का पोस्टर याद करें!
हालाँकि, छावा जैसी फिल्मों के उदय ने इस धारणा को चुनौती दी है। इन फिल्मों ने हिंदू सम्राटों की वीरता और उनके संघर्ष को एक नए नजरिए से प्रस्तुत किया है। यह फिल्में न केवल ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित हैं, बल्कि उन्होंने भारतीय समाज में हिंदू सम्राटों के प्रति एक नई जागरूकता पैदा की है। क्या बॉलीवुड अपनी छवि से निकलना चाह रहा है? या फिर ये बदलती छवि उनके पैसे छपने की नयी मशीन बनकर रह जाएगी? हमें प्रतीक्षा करनी होगी और सावधानी से निर्मित फिल्मों की समीक्षा भी करनी होगी।
आर्थिक लाभ-हानि और डाटा
ऐतिहासिक फिल्मों की सफलता को समझने के लिए उनके आर्थिक प्रदर्शन को देखना आवश्यक है। जोधा अकबर (2008) ने लगभग 120 करोड़ रुपये की कमाई की, जो उस समय के लिए एक बड़ी सफलता थी। वहीं, तानाजी: द अनसंग वॉरियर (2020) ने 280 करोड़ रुपये से अधिक की कमाई की, जो दर्शाता है कि हिंदू सम्राटों पर आधारित फिल्में भी बॉक्स ऑफिस पर सफल हो सकती हैं। छावा (2024) के लिए अनुमानित कमाई 500 करोड़ रुपये है, जो इस तरह की फिल्मों के प्रति दर्शकों के बढ़ते रुझान को दर्शाता है। इन तथ्यों के आधार पर यह प्रश्न नैर्सैगिक है – क्या ये वास्तविक ह्रदय परिवर्तन है या दर्शकों की भावनाओं को आर्थिक लाभ में बदलने का साधन मात्र?
4. धन उपार्जन या ह्रदय परिवर्तन?
यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या बॉलीवुड का यह परिवर्तन केवल धन उपार्जन का एक नया माध्यम है, या फिर यह एक सच्चा ह्रदय परिवर्तन है। इसका उत्तर दोनों ही हो सकता है। एक तरफ, बॉक्स ऑफिस पर ऐतिहासिक फिल्मों की सफलता और उनके प्रति दर्शकों का बढ़ता रुझान निर्माताओं को इस दिशा में आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करता है। दूसरी तरफ, भारतीय समाज में हिंदू राष्ट्रवाद और सांस्कृतिक पुनरुत्थान की बढ़ती लहर ने बॉलीवुड को इस दिशा में कदम बढ़ाने के लिए मजबूर किया है।
5. भविष्य की दिशा
भविष्य में, बॉलीवुड के ऐतिहासिक सिनेमा की दिशा क्या होगी, यह कहना मुश्किल है। हालाँकि, यह स्पष्ट है कि ऐतिहासिक फिल्मों के प्रति दर्शकों का रुझान बढ़ रहा है और निर्माता इस दिशा में और अधिक फिल्में बनाने के लिए प्रेरित हो रहे हैं। यह फिल्में न केवल ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित होंगी, बल्कि उनमें भारतीय समाज की विविधता और उसके सांस्कृतिक मूल्यों को भी उजागर किया जाएगा।
निष्कर्ष
बॉलीवुड में ऐतिहासिक सिनेमा का परिवर्तन एक जटिल और बहुआयामी प्रक्रिया है। जहाँ एक तरफ जोधा अकबर जैसी फिल्मों ने मुगल शासकों की छवि को सजाने-संवारने का काम किया, वहीं छावा जैसी फिल्मों ने हिंदू सम्राटों की वीरता और उनके योगदान को उजागर किया है। यह परिवर्तन क्या केवल धन उपार्जन का एक नया माध्यम है, या फिर यह बॉलीवुड के वामपंथी और मुस्लिम तुष्टिकरण से ग्रसित चलचित्र निर्माण की शैली में एक सच्चा परिवर्तन है, यह समय ही बताएगा। हालाँकि, यह स्पष्ट है कि बॉलीवुड के ऐतिहासिक सिनेमा ने भारतीय समाज में ऐतिहासिक तथ्यों और उनके प्रति जागरूकता को बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
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आशीष
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